वर्तमान समय में उमराव समाज के लोग मुख्यतः उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद की बिंदकी तहसील एवं कानपुर नगर की घाटमपुर तहसील के पूर्वी भाग में निवास करते हैं हालांकि सुविधाओं और रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में लोग कानपुर नगर, फतेहपुर नगर, लखनऊ, प्रयागराज (इलाहाबाद), दिल्ली आदि शहरों में भी निवास कर रहे हैं। कुछ इक्का-दुक्का परिवार भोपाल, इंदौर (मध्य प्रदेश) तथा मुंबई, कोलकाता, ग्वालियर, जयपुर, जोधपुर एवं अन्य महानगरों में भी बस गए हैं। ये सभी लोग आजीविका की तलाश में अपने गांवों से बाहर निकले और फिर वहीं स्थायी रूप से बस गए।
इस मत के अनुसार उमराव समाज के लोग राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र के बूंदी से सन् 1680 में विस्थापित होकर उत्तर प्रदेश के फतेहपुर की बिंदकी तहसील और कानपुर की घाटमपुर तहसील के लगभग 150 गाँवों में निवास करते रहे हैं।हमारी पहचान मूल रूप से कृषि कार्य रही है।1970 के दशक के बाद शिक्षा के प्रसार के साथ, समाज के लोग बेहतर आजीविका की तलाश में गाँवों से निकलकर महानगरों, प्रदेश, देश और विदेश तक पहुँचे।
इस मत के अनुसार उमराव समाज के लोग राजस्थान के किशनगढ़ से मुगल सम्राट अकबर और जहांगीर के संधिकाल में यात्रा करते हुए इस क्षेत्र में आए और ग्राम बबई में प्रथम बार बसे। वहीं से उनका विस्तार हुआ और वे आस-पास के गाँवों में फैल गए। इसी मत के समर्थन में कुछ लोगों का यह भी मानना है कि खजुआ के पास "अर्गल" नाम की एक छोटी रियासत थी, जहाँ के राजा ने अपने राज्य की अराजकता को नियंत्रित करने के लिए इन्हें आमंत्रित किया था। वे वहीं बस गए। हालांकि इस मत के समर्थन में कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
दूसरे मत के अनुसार उमराव समाज के पूर्वज मूलतः मराठी थे और वे महाराष्ट्र से शिवाजी महाराज के बाद, पेशवाओं के शासनकाल में यहां आए। वे शिवाजी के सैनिक रहे होंगे और किसी सैन्य सहायता के रूप में यहां पहुंचे। गंगा-यमुना के दोआबे की उपजाऊ भूमि देखकर वे यहीं बस गए और आत्मनिर्भर होकर सम्मानपूर्वक जीवन यापन करने लगे।हालांकि इस मत के समर्थन में कोई दस्तावेजी प्रमाण अब तक नहीं मिले हैं, फिर भी कई ऐतिहासिक-सांस्कृतिक संकेत इस मत को बल देते हैं:मराठी सैनिक विभिन्न रियासतों की सहायता के लिए दूर-दूर तक जाते थे और युद्ध में सेवा के बदले पारिश्रमिक प्राप्त करते थे। झांसी रियासत और किला एक समय मराठों के अधीन रहा, जिसे छतरपुर के महाराज ने युद्ध में सहायता के उपरांत मराठों को दिया था।मराठे लड़ाके होते थे — उनकी महिलाएं भी युद्ध में भाग लेती थीं और तलवार चलाना जानती थीं।युद्ध के समय दोनों हाथ की चूड़ियाँ एक साथ न टूटें, इसलिए मराठी स्त्रियाँ एक हाथ में चांदी की चूड़ियाँ (जिसे "माठी" कहा जाता है) पहनती थीं। चूड़ियाँ टूटना विधवा होने का प्रतीक माना जाता था।आज से 50–60 वर्ष पहले तक उमराव समाज की अधिकांश वृद्ध महिलाएं एक हाथ में माठी पहनती थीं। आज भी कुछ वृद्ध महिलाएं इस परंपरा का पालन करती दिख जाती हैं।मराठी सैनिक शांति काल में कृषि कार्य करके आजीविका चलाते थे क्योंकि अधिकांश सैनिक स्थायी नहीं होते थे — केवल युद्धकाल में ही उन्हें बुलाया जाता था।इन सभी बातों से यह निष्कर्ष निकलता है कि उमराव समाज के पूर्वज महाराष्ट्र से आए होंगे और संभवतः शिवाजी या उनके वंशजों के अनुयायी रहे होंगे।
मुगल एवं मुस्लिम शासकों के काल में "अमीर" और "उमराँ" जैसे दो प्रकार के सामंत होते थे,"अमीर" (धनाढ्य वर्ग – सेठ,व्यापारी),"उमराँ" (सैनिक पृष्ठभूमि वाले सामंत) संभावना है कि "उमराव" शब्द, "उमराँ" का ही एक परिवर्तित रूप हो, जो कालांतर में समाज के नाम में परिवर्तित हो गया। ...
उमराव समाज की उत्पत्ति और इतिहास पर स्पष्ट ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक या आज तक उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन सामाजिक परंपराएं, वेशभूषा, रहन-सहन और जनश्रुति से यह संकेत अवश्य मिलता है कि यह समाज वीरता, आत्मनिर्भरता और सम्मानपूर्वक जीवन जीने वाले लोगों का समूह रहा है, जिनकी जड़ें संभवतः मराठा या राजपूत सैन्य परंपरा से जुड़ी रही हों।...